पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. भक्त-भयहारी
अर्जुन अत्यन्त व्यथित, व्याकुल होकर पुकार उठे- 'श्यामसुन्दर ! आपने यह क्या किया ? आपने तो प्रतिज्ञा की है कि आप युद्ध न करके केवल सारथ्य करेंगे। आप अपनी प्रतिज्ञा का पालन क्यों नहीं कर रहे हैं, मैं संकट में पड़ जाता और अस्त्र-निवारण में असमर्थ होता तो आपका ऐसा करना उचित भी होता किन्तु मेरे हाथ में धुनष है, मैं सावधान हूँ, फिर भी आप स्वयं अस्त्राघात सहते हैं, यह मैं सहन नहीं कर सकता। आपके श्रीअंग पर इतना प्रचण्ड आघात लगे, इसकी अपेक्षा अस्त्राग्नि में अर्जुन का शरीर भस्म हो जाना कहीं श्रेष्ठ है।' 'विजय ! तुम नहीं समझते हो कि वह वैष्णवास्त्र तुम्हारे प्रतिकार से परे था।' श्रीकृष्ण ने कहा- 'लोक मंगल के लिए मैं सृष्टि में चार स्वरूप धारण किये रहता हूँ। मेरी एक मूर्ति नारायण के रूप में रहकर बद्रीनाथ में तप करती है। दूसरे रूप से मैं जगत के शुभाशुभ कर्मों पर दृष्टि रखता वैकुण्ठवासी हूँ। तीसरे रूप में मैं समय-समय पर पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ। मेरा चतुर्थ स्वरूप सहस्र दिव्य वर्षों तक जल में शयन करता है। इस शेषशायी रूप में मैं जब सहस्र वर्षों के अनन्तर शयन से उठता हूँ तो ऋषि-महर्षिगणों को वरदान देता हूँ। 'एकबार ऐसे ही अवसर पर भू देवी ने मुझ से वरदान मांगा- 'मेरा पुत्र नरकासुर देव, दैत्य सबसे अवध्य हो जाय ! वह अमर हो तथा उसके पास वैष्णवास्त्र रहे। 'मैंने धरा देवी को कह दिया कि अमरत्व तो नहीं दिया जा सकता किन्तु केवल मैं उनके पुत्र को मार सकूँगा और वह भी तब जब वे स्वयं ऐसा करने को कहेंगी। मैंने वैष्णवास्त्र दे दिया। मैंने उस भौमासुर को मार दिया तो वैष्णवास्त्र भगदत्त को प्राप्त हो गया। इन्द्र, रुद्र आदि में भी कोई ऐसा नहीं जो इस अस्त्र से मारा न जा सके। तुम्हारी प्राण रक्षा के लिए ही मैंने इसका आघात सहकर इसे व्यर्थ कर दिया। अब यह असुर भगदत्त अस्त्र रहित हो गया।' अर्जुन ने अवश्य बाण मारकर भगदत्त के महागज को मार दिया, किन्तु भगदत्त के वध में फिर उन्हें श्रीकृष्ण की सहायता आवश्यक हुई। केशव ने ही बतलाया- 'यह भगदत्त बहुत बड़ी आयु का है। इसकी पलकें उठती नहीं। नेत्र प्रायः बन्द रहते हैं। इस समय पलकों को वस्त्र की पट्टी से इसने ललाट के साथ बाँध रखा है।' यह सुचना पाने पर अर्जुन ने वही पट्टी बाण मारकर काट दी। इससे भगदत्त के नेत्र बन्द हो गये और अर्जुन को उसके शिरच्छेदन का समय मिल गया। इस प्रकार अर्जुन इस इन्द्र के मित्र को मार सके। दूसरे दिनके इस युद्ध में भी द्रोणाचार्य का युधिष्ठिर को बन्दी बनाने का प्रयास असफल सिद्ध हुआ। उन्होंने बहुत प्रयत्न किया और पाण्डव पक्ष की सेना का संहार भी बहुत किया। अनेक महारथियों को पीछे भागने को भी विवश किया किन्तु युधिष्ठिर तक वे पहुँचते इससे पूर्व ही भगदत्त को भी मारकर अर्जुन सम्मुख आ पहुँचे। द्रोणाचार्य अर्जुन के आने पर स्वयं संकट में पड़ गये। कर्ण उनकी रक्षा को आगे बढ़ा किन्तु सात्यकि के साथ युद्ध में कर्ण ही मारा जाता यदि जयद्रथ, द्रोणाचार्य आदि ने उसको बचाया न होता। अर्जुन और भीमसेन ने आज के युद्ध में कौरव पक्ष का इतना विनाश किया कि उनकी सेना अस्त-व्यस्त होकर भाग चली। सूर्यास्त हो गया इसी समय, अतः दोनों दल युद्ध रोककर अपने शिविरों को लौटने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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