पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. जगद्गुरु
मेरा जन्म वाराणसी ज़िले में हुआ है, अत: मैं अपने को बाबा विश्वनाथ के घर का बालक मानता हूँ। लगा कि उन हिमवान के अनादि तापस को ही इस बालक की सुधि आ गयी थी। वे ही तो परमगुरु हैं। उनको कोई महाबुद्ध कहे मेरे तो वे बाबा हैं, भोले बाबा। ‘आचार्य चैत्य बपुषा स्वगर्ति व्यनक्ति’ यह वाक्य श्रीमद् भागवत[1] का है और वे महाबुद्ध-प्रेषित अदृश्य जो कोई भी रहे हों, दोनों की बात एक ही है। गुरु-आचार्य का शरीर तो मन्दिर है और उस देह में जो व्यक्ति चैतन्य है, वह मूर्ति है। इन मूर्तियों के माध्यम से वह एक ही परम गुरु नाना रूपों में नाना प्रकार के अधिकारियों को उनके अधिकार के अनुरूप साधन का उपदेश करने के लिए व्यक्त हो रहा है। मन्दिर में प्रतिष्ठित मूर्ति सुन्दर है या नहीं है, सज्जित है या नहीं है और वहाँ कैसे लोग जाते हैं, इन बातों का कोई महत्व नहीं है। श्रीकेदारनाथजी की श्रीमूर्ति केवल त्रिकोणप्राय पाषाण खण्ड और वहाँ कोई सजावट, स्वच्छता नहीं है। सब लोग- सब प्रकार के लोग वहाँ जाते हैं और अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। देश में बहुत सुन्दर मन्दिर एवं शिव मूर्तियाँ- शिव लिंग भी अनेक हैं; किन्तु श्री केदारनाथ ज्योतिलिंग हैं– द्वादश ज्योतिलिंगों में से एक। उसकी महत्ता उसके आकार, मन्दिर, स्वच्छतादि में नहीं है। इसी प्रकार आपके जो गुरुदेव हैं, उनका शरीर कैसा है, उनमें क्या विशेषताएँ हैं– इनका महत्त्व नहीं हैं। सद्गुण भी मानव स्वभाव के भूषण ही हैं, इसे मत भूलिये और गुरु मनुष्य नहीं है, वे साक्षात परमात्मा हैं- वैसे ही जैसे मन्दिर में प्रतिष्ठित मूर्ति पाषाण, काष्ठ, धातु आदि की होने पर भी साक्षात् परमात्मा है। नियम यह है कि दो परस्पर-विरोधी तत्वों का सम्बन्ध सम्भव नहीं है। जो सच्चिदानन्द है, उसे माया अथवा मायिक–तत्व कैसे जान सकता है। अत: साध्य, साधन, साधक तथा उपदेष्टा एक ही कोटि के होने चाहिए, तभी साधन की पूर्णता सम्भव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11-29-6
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