पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. अपनी बात
इस ऐश्वर्य रूप से समन्वित उनका इन्द्रप्रस्थ हस्तिनापुर का रूप जगदगुरु- नर का सखा रूप है। जहाँ द्वारिका में महाराज उग्रसेन के सिंहासनासीन रहते हुए तथा उनका सम्यक सम्मान करते हुए भी श्रीकृष्ण श्रीद्वारिकाधीश हैं, वहीं पाण्डवों के पूर्ण समर्थक होते हुए तथा पाण्डवों के समस्त कार्य विधायक होते हुए भी श्रीकृष्ण सखा हैं- नर सखा। यहाँ वे ऐसे सुहृद् हैं जो अपने मित्र को बड़ा करके ही नहीं रखता, उसकी इच्छा, उसके संकेत का स्वयं पालन करता है और उस मित्र की सुरक्षा, हित तथा श्रेय का दायित्व भी स्वयं वहन करता है। भक्तिशास्त्र की विशेषता ही है जगदीश्वर का साधारणीकरण कर देना। जो अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक है, यह अपना ऐश्वर्य भूलकर अपने सुहृद का वशवर्ती सखा, सेवक, आज्ञाकारी होकर रहता है। अपना-सर्वथा अपना और अपने जैसा सामान्य बन जाता है। श्रीकृष्णचंद्र का यह रूप ऐश्वर्य समन्वित इन्द्रप्रस्थ में प्रकट हुआ है। अत: इन्द्रप्रस्थ का उनका चरित पृथक ही दिया जाना चाहिये, यह बात मन में आई। जहाँ तक ब्रज की बात है, वहाँ ऐश्वर्य कम नहीं है। अपार ऐश्वर्य है वहां। ऐसा ऐश्वर्य कि इन्द्र और ब्रह्मा वहाँ किसी गणना में नहीं आते, किन्तु वह ऐश्वर्य माधुर्य से आच्छादित है। वहाँ श्रीकृष्णचंद्र नित्य द्विभुज है और कभी ऐश्वर्य प्रकट भी हो जाये तो जैसे स्वयं संकुचित लज्जित होकर सिकुड़ जाता है। सर्वथा साधारणीकरण ब्रज में हो गया सर्वेश्वर का। इतना वंशवद वह निखिलब्रह्माण्ड नायक वहाँ सबका है कि वह ईश्वर भी है, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। गर्गाचार्य जी जैसे कोई कुछ बतलावें भी तो कोई उसे वहाँ मानो महत्ता ही नहीं देता। ब्रज का चरित अपने आप में पूर्ण है और शेष समस्त चरितों से पृथक है, अत: उसे पृथक रखने में तो कोई युक्ति बाधक नहीं थी, किन्तु द्वारिका एवं इन्द्रप्रस्थ के चरित इतने घुले-मिले हैं कि इन्हें पृथक करने में कठिनाई हुई है। इनमें से कई चरित ऐसे हैं जिनका कुछ भाग एक खण्ड में और कुछ भाग दूसरे खण्ड में देना पड़ा है। जैसे ‘स्यमन्तक मणि’ की पूरी कथा ‘श्रीद्वारिकाधीश’ में गयी है, किन्तु पिता के वध से संतप्त सत्यभामा के हस्तिनापुर पहुँचने का अध्याय इस पार्थ-सारथि में दिया गया। राजसूय यज्ञ की प्रस्तावना तथा द्वारिका से उसके लिए ‘श्रीद्वारिकाधीश’ में गया और शेष सब कथा इस खण्ड में है। ‘पार्थ-सारथि’ नर का सखा नारायण- यह स्वरूप श्रीकृष्णचंद्र का इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसे पृथक ही देने का लोभ मैं नहीं छोड़ सका और तब चरितों के खण्ड स्थान की सीमा में रखकर करने का विचार हुआ। इस प्रकार कला के आग्रह ने कुछ चरितों को दो खण्डों में विभक्त करने को बाध्य किया। इस खण्ड के पूरे चरित का आधार प्राय: महाभारत है। कुछ थोड़ा अंश ही अन्यत्र से लिया गया है- जैसे श्रीकृष्णार्जुन-युद्ध, सुधन्वाचरित आदि। महाभारत में भगवान व्यास का वर्णन इतना पूर्ण है कि मैंने अनेक स्थानों पर शब्दावली भी वही ले ली है। किसी भी ग्रन्थ को दु:खान्त समाप्त करना भारतीय परम्परा के प्रतिकूल होता है। हमारी संस्कृति ‘दु:ख दु:खं’ की उपासिका नहीं है। हमें श्रुति कहती है- आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तैत्तिरीयोपनिषद 3.6-1
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