पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
विवेकवान पुरुष को चाहिए कि अज्ञानियों की प्रवृत्ति का विरोध करके उनमें बुद्धि भेद उत्पन्न न करे क्योंकि इससे उनमें ठीक ज्ञानोदय तो होगा नहीं, बद्धि भ्रम होने से वे पथभ्रष्ट हो जायेंगे। अत: उनको तो वे जो कर रहे हैं, करने दे किन्तु स्वयं समस्त कर्म अन्तर्यामी परमात्मा को अर्पित करके एवं फलाशा त्यागकर, ममतारहित होकर कर्तव्य का पालन करे। सब प्राणी अपने स्वभाव के अनुसार व्यवहार करने को विवश है। स्वभाव के विपरीत नियन्त्रण का प्रयत्न सफल नहीं होता। अर्जुन का स्वभाव क्षत्रिय का है। वह शत्रु के व्यंग सहकर, भिक्षा माँगकर जीवन-यापन नहीं कर सकता अत: उसे कर्तव्य प्राप्त युद्ध करना चाहिए। लेकिन इन्द्रियों का अपने विषयों में जो राग है, उसी को स्वभाव मानकर विषयासक्त होना अनर्थकारी है। इन्द्रियों की प्रवृति के वश में तो नहीं होना चाहिए। उनका नियन्त्रण करना चाहिए। काम और क्रोध रजोगुण के, प्रवृति के पुत्र हैं। ये सदा अतृप्त रहते हैं और पाप में ही प्राणी को प्रवृत्त करते हैं। अत: इनको अपना शत्रु समझना चाहिए। इन्द्रियों, मनमें और बुद्धि में भी काम, विषयों की भोगेच्छा का निवास है। अत: पहिली बात है कि इन्द्रियों को बलपूर्वक नियन्त्रित करके कामना का त्याग कर दो। वैसे जो बुद्धि से भी परे परम तत्व है, उसके साक्षात्कार से काम समूल नष्ट हो जाता है। श्रीकृष्ण ने कह दिया- 'यह योग मैंने विवस्वान को सुनाया था। उन्होंने अपने पुत्र मनु को बतलाया और मनु ने इक्ष्वाकु को। इस प्रकार राजर्षियों की परम्परा में आता यह ज्ञान कालयोग से नष्ट हो गया था।' अर्जुन का प्रश्न स्वाभाविक था –– 'आपका जन्म अभी हुआ और सूर्य का बहुत पहिले। अत: आपने सूर्य को कैसे उपदेश दिया?' श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया — 'मेरे बहुत से जन्म हो चुके और तुम्हारे भी असंख्य जन्म हुए। जीव अपने जन्मों को नहीं जानता क्योंकि वह अविद्या से आवृत है। कर्म परतन्त्र है; किन्तु मैं योगमाया का आश्रय करके युग-युग में धर्म की रक्षा, दुष्कर्मियों के विनाश तथा साधु परित्राण के लिए अवतार लेता हूँ। अविद्या-संस्पर्श शून्य होने से मुझे सबका ज्ञान है।' अवतार-चरित सदा जीवों के लिए मंगलकारी है। जो उसका दिव्य-तत्त्व जानते हैं वे तो जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं। जो जिस भाव से भगवान की शरण लेते हैं, भगवान भी उसी भाव से उन्हें अपनाते हैं। कर्म के द्वारा सिद्धि चाहने वाले देवताओं की आराधना करते हैं। इस प्रकार की कर्मज सिद्धि कर्म के ठीक-ठीक होने पर शीघ्र होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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