पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. गुरुतत्व
नाद-संतान की उत्पत्ति क्या? शास्त्रीय विवेचन में न जाकर सीधे ढंग से कहें तो यह कि गुरु-दीक्षा के उपरान्त कम से कम एक प्रहर वह गुरु प्रदत्त साधन बहुत प्रबलता से चलता रहा और आपको अपने में लगाये रखा तो दीक्षा ठीक हुई। साधन-शरीर का जन्म हो गया। अब कोई भी अवस्था हो, यह साधन देह अमर है। अब जाग्रत न भी हो तो भी जमान्तर में जागकर आपको लक्ष्य तक पहुँचा देगा। ऐसी दीक्षा-प्राप्त होने पर गुरु परिवर्तित नहीं किया जा सकता। केवल कान में मन्त्र सुन लिया और कोई विशेष भाव, तन्मयता नहीं आयी तो दीक्षा हुई ही नहीं। शिष्य तो दीक्षा लेने आया ही था- गुरु के पास बीज नहीं था। ऐसी साधना-बीज से हीन दीक्षा, दीक्षा नहीं है। ऐसा गुरु बदला जा सकता है और परमार्थ के जिज्ञासु को बदल देना चाहिए। गुरु जीवित न हो, बहुत दूर रहते हों, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। गुरु को दैहिक सामीप्य प्राप्त न हो तो दूसरे किसी सत्पुरुष से आप सलाह ले सकते हैं। इसे वैष्णव शिक्षा-गुरु बनाना कहते हैं, किन्तु दीक्षा-गुरु दीक्षा ठीक हुई तो बदला नहीं जाना चाहिए। मन्त्र-जप में तो गुरु का ध्यान होता है और गुरु की मानसिक आज्ञा लेकर जप प्रारम्भ किया जाता है। ऋष्यिादि न्यास में ऋषि का न्यास मस्तक में करने की विधि है। मन्त्र का उपदेष्टा गुरु ही उसका ऋषि है। आराध्य का स्थान- ध्यान हृदय में गुरु का ध्यान मस्तक में- आज्ञा चक्र में किया जाता है। इस चक्र का नाम आज्ञा चक्र ही इसलिए है कि यहीं से साधक को गुरु की आज्ञा प्राप्त होती है और कुण्डिलिनी इस चक्र का वेध साधक के प्रयास से नहीं कर पाती। गुरु की आज्ञा से ही इस चक्र का वेध होता है। ‘पार्थ-सारथि’ श्रीकृष्णचन्द्र का जगद्गुरु स्वरूप है। उस स्वरूप को हृदयंगम करने के लिए गुरु की आवश्यकता, उसका स्वरूपादि कुछ समझ लेना आवश्यक था। जिन्हें स्वप्न–दीक्षा प्राप्त हुई अथवा किसी देवता या सिद्ध पुरुष ने प्रत्यक्ष होकर दीक्षा दी, उनका साधन अनेक जन्मों से आ रहा है और उन्हें नवीन प्रत्यक्ष गुरु की आवश्यकता नहीं है; किन्तु जो सामान्य साधक है, उनके लिए तो प्रत्यक्ष गुरु की आवश्यकता अनिवार्य है। साध्य परोक्ष है। ईश्वर अप्राप्त है। अब यदि उपदेष्टा, मार्गदर्शक, प्रकाशक भी परोक्ष हो जायगा, वह भी बुद्धि से किसी को मान लिया जायगा तो लक्ष्य तक पहुँचना अनिश्चित ही हो जायगा। अत: शास्त्र की यह निर्विवाद सम्मति है कि साधक को प्रत्यक्ष गुरु प्राप्त ही करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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