पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
45. बर्बरीक–वध
बर्बरीक दूसरा वाण हाथ में लेकर धनुष पर चढ़ाये इससे पूर्व ही श्रीकृष्ण का दाहिना हाथ ऊपर उठा। उनके स्मरण करते ही उनका अमोघ चक्र उनकी उठी तर्जनी में घूमने लगा। कोई कुछ समझे इससे पहिले ही चक्र ने बर्बरीक का मस्तक उसके धड़ से काट दिया। वह सिर श्रीकृष्ण के चरणों पर ही गिरा। आश्चर्य, शोक, भस से सब स्तब्ध रह गये किन्तु उस कटे सिर से शब्द गूंजा – ‘सर्व समर्थ पुरुषोत्तम ! आपके करों से मरकर मैं धन्य हो गया। देव जनार्दन ! एक ही कामना अपूर्ण रह जाती है वह यह कि मैं युद्ध को देखना चाहता था।’ श्रीकृष्ण ने झुककर दोनों हाथों में अपने पदों के समीप से वह सिर उठा लिया और उसकी ओर देखकर बोले – ‘तुम सप्राण रहोगे और यह संग्राम सम्पूर्ण देखोगे। भगवान रुद्र तुम्हें अपनी मुण्ड माला में स्थान देंगे।’ वह मस्तक श्रीकृष्ण ने स्वयं वहाँ समीप बहुत उँचे वृक्ष के शिखर की डाली पर स्थापित कर दिया। भीमसेन और अर्जुन ने एक शब्द नहीं कहा। यद्यपि उनके नेत्रों से टपकते अश्रु उनकी व्यथा सूचित करने को पर्याप्त थे। घटोत्कच ने आकर मधुसूदन के पदों में मस्तक रखा। वह मनस्वी प्रसन्न स्वर में बोला – ‘आपने इसे कृतार्थ कर दिया। इसका जन्म लेना सफल हो गया।’ युधिष्ठिर ने वेदनापूर्ण स्वर में कहा – ‘जनार्दन ! अपने पक्ष के इतने अनुपम वीर का वध किया आपने?’ श्रीकृष्ण ने गम्भीर वाणी में उत्तर दिया – ‘धर्मराज ! मेरा न कोई प्रिय है, न अप्रिय ! धर्म की मर्यादा का ध्यान रखकर जो चलता है वह मेरा रक्ष्य है और जो उसे नष्ट करना चाहता है मैं उसके दमन में संकोच नहीं करता। दोनों सेनाओं में अनेक लोगों ने विविध वरदान पाये हैं। सबकी मर्यादा नष्ट करके जो उन्हें मार देने को उद्यत हो गया, उसकी इतनी बड़ी शक्ति विश्व में कितना अनर्थ उपस्थित कर सकती थी ? दूसरा कोई इसे मारने में समर्थ नहीं था।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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