पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
40. दुर्योधन की दुराभिसन्धि
दुर्योधन, शकुनि, दु:शासन आदि तो पहिले ही क्षण में भय से काँपे, स्वेद से स्नात हुए और मूर्च्छित हो गये। कर्ण ने हाथ जोड़ रखे थे और नेत्र बन्द कर लिये थे। वह भी उस तेज को देखने में समर्थ नहीं था। केवल द्रोणाचार्य, भीष्म, विदुर,संजय और ऋषिगण ही उसका स्वरूप का दर्शन करने में समर्थ हुये। देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं और गगन से पुष्प वर्षा होने लगी। विदुर से सुनकर धृतराष्ट्र ने प्रार्थना की–‘दयामय ! आप अनन्त करुणा सिन्धु हैं अतः मुझ पर भी कृपा कीजिए। मैं केवल आपके ही दर्शन करना चाहता हूँ। दूसरे किसी को देखने में मेरी रुचि नहीं है। मैं आपको देख सकूँ इतनी देर को मुझे नेत्रदान कर दें’। सहसा धृतराष्ट्र को नेत्र प्राप्त हो गये। वे श्री कृष्ण की स्तुति करने लगे। पृथ्वी काँपने लगी। समुद्र में उत्ताल तरंगें उठने लगी। प्रकृति उस प्रचण्ड स्वरूप का प्राकट्य देर तक सहने में असमर्थ थी। अतः श्रीकृष्ण ने उसका तिरोभाव कर लिया। धृतराष्ट्र के नेत्र भी उसी के साथ लुप्त हो गये। दुर्योधन आदि को तो उसके पश्चात् भी सचेत होकर सावधान होने में समय लगा। वे लोग लज्जित होकर सिर झुकाये बैठ गये थे। उनके हृदय अब भी वेग से धड़क रहे थे। अब श्रीकृष्ण चन्द्र ने ऋषियों से अनुमति ली और सात्यकि तथा कृतवर्मा का हाथ पकड़कर सभा भवन से उठ खड़े हुए। उनके चलने को प्रस्तुत होते ही ऋषिगण भी अन्तर्धान हो गये। श्रीकृष्ण को चलते देखकर सब कौरव तथा राजा गण उनके पीछे-पीछे चलने लगे। दारुक गरुडध्वज रथ लिये द्वार पर खड़ा था। भगवान वासुदेव के साथ ही उनके रथ पर सात्यकि तथा कृतवर्मा भी बैठ गये। महाराज धृतराष्ट्र संजय का सहारा लेकर द्वार तक आ गये थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा-‘आपके प्रत्यक्ष देख लिया कि अपने पुत्रों पर मेरा कितना वश है। मैं चाहता हूँ कि मेरे पुत्रों और पाण्डवों में मेल हो जाय और इसके लिये प्रयत्न भी करता हूँ किन्तु मेरी अवस्था तो आपने देख ही ली।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने रथ पर बैठे बैठे ही राजाओं की ओर मुख करके कहा - ‘कौरवों की सभा में जो कुछ हुआ, उसे आप सबने देखा है। महाराज धृतराष्ट्र भी इस विषय में अपने को असमर्थ बतला रहे है। अतः मैं अब राजा युधिष्ठिर के समीन जाने के लिये आप सबसे आज्ञा लेता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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