पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
40. दुर्योधन की दुराभिसन्धि
धृतराष्ट्र का साहस नहीं हुआ कि वे श्रीकृष्ण से कुछ कहें। उन्होंने विदुर को दुर्योधन को बुलाने के लिए भेजा। विदुर के कहने पर दुर्योधन अनिच्छापूर्वक वहाँ आया। धृतराष्ट्र ने उसे धिक्कारा - 'तू इतना दुबुद्धि और पापी हो गया है कि श्रीकृष्ण को बन्दी करने की बात तेरे मन में आती है? इन्द्र के साथ सब सुर मिलकर भी जिनके हाथ से पारिजात नहीं ले सके उसे तू बाँधेगा? जैसे कोई वायु को हाथ से नहीं पकड़ सकता, पृथ्वी को सिर पर नहीं उठा सकता वैसे ही कोई भी बलपूर्वक श्रीकृष्ण को बाँध नहीं सकता।' विदुर ने कहा - 'दुर्योधन ! तुमको कदाचित पता नहीं कि नरकासुर ने श्रीकृष्ण को बाँधने का विचार किया था। उसके नगर में भी ये अकेले गये थे। उसी के मार्ग से तुम्हें जाना है ? तुम इनके तिरस्कार का साहस करोगे तो अभी साथियों के साथ नष्ट हो जाओगे।' दुर्योधन कुछ कहता या वहाँ से चला जाता इसके पूर्व ही श्रीकृष्णचन्द्र उठ खड़े हुए और बोले - 'तुम अज्ञानवश यह समझते हो कि मैं एकाकी हूँ। तुम सब मिलकर मुझे पकड़ने की दुराशा ही करते हो। समस्त पाण्डव, सब यादव वीर, आदित्य, वसु, रुद्र तथा ऋषिगण सब यहीं हैं। मैं सर्वात्मक, सर्वाधार हूँ। मुझ विराट को तुम बाँधोगे ?' यह कहकर श्रीकृष्ण ने अट्टहास किया। दिशाएँ, शत सहस्त्र आदित्य उदय हो गये हों, ऐसे प्रकाश से भर गयीं। श्रीकृष्ण के उस अनादि अनन्त शरीर में सब देवता अंगुष्ठ परिमाण जैसे दीखने लगे। द्वादश आदित्य, साध्य, अष्ट वसु, एकादश रुद्र, अश्विनीकुमार इन्द्रादि लोकपाल, मरुदगण, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, दैत्य, दानव - सब उस शरीर से अभिन्न दीखते थे। भुजाओं से श्रीबलराम और अर्जुन प्रकट हुए। शेष चारों पाण्डव पृष्ठ भाग में थे। प्रद्युम्नादि समस्त यादव शूर शस्त्र सज्जित सामने खड़े थे। श्रीकृष्ण की अनेकों भुजाएँ प्रकट हो गयी थीं और उनमें अनेक प्रकार के शस्त्र थे। उनके नेत्र, कर्ण, नासिका से अग्नि की प्रचण्ड लपटें निकल रही थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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