पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. शान्ति दूत
'तुम अपने पुत्र, भाई तथा सम्बंधियों की ओर देखो। ये तुम्हारे लिए नष्ट न हों। अपने को कुलघाती मत बनाओ। कुरुवंश का बीज बना रहने दो। अपनी कीर्ति को कलंकित मत करो। 'तुम्हारी हानि क्या है पाण्डवों से सन्धि करने में ? महारथी पाण्डव तुम्हें ही युवराज बनायेंगे। इस साम्राज्य पर तुम्हारे पिता धृतराष्ट्र ही स्थापित होंगे। बड़े उत्साह से अपने पास आती राजलक्ष्मी का तिरस्कार मत करो। पाण्डवों को आधा राज्य देकर उन्हें अपना सहायक बना लो और महान ऐश्वर्य प्राप्त करो। इस प्रकार तुम चिरकाल तक अपने मित्रों के साथ आनन्द मना सकोगे।' श्रीकृष्णचन्द्र के इस भाषण में साम, दाम, दण्ड और भेद सभी कुछ था। दुर्योधन को भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर तथा धृतराष्ट्र ने भी समझाया कि 'श्रीकृष्ण की बात मानने में उसका हित है। सन्धि करने का यह सुअवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।' दुर्योधन इन सब बातों को सुनकर और अधिक चिढ गया। उसने कहा - 'केशव ! आपको भली प्रकार सोच समझकर बोलना चाहिए। आप तो पाण्डवों के प्रेम की दुहाई देकर उलटी सीधी कह रहे हैं। क्या आप सदा बलाबल का विचार करके ही मेरी निन्दा किया करते हैं ? आप विदुरजी, आचार्य, पिताजी और पितामहजी अकेले मेरे ऊपर ही सारा दोष लाद रहे हैं। किन्तु मैंने विचार कर देख लिया, मुझे अपना कोई छोटा-सा दोष भी नहीं दिखता। 'पाण्डव अपने व्यसनवश द्यूत में लगे। उसमें मामा शकुनि ने उनको जीत लिया, इससे उन्हें वन में जाना पड़ा। इसमें मेरा क्या अपराध था कि वे मेरे साथ विरोध बढाते हैं? मैं जानता हूँ कि पाण्डवों में हमारा सामना करने की शक्ति नहीं है। तब वे उत्साह के साथ हमारे साथ शत्रुता का बर्ताव क्यों करते हैं ? हम आपकी डराने वाली बातों से डरने वाले नहीं हैं। हमें तो ऐसा कोई क्षत्रिय नहीं दीखता जो हमें समर में जीतने का साहस कर सके। फिर स्वधर्म पालन करते हम समर में काम आ गये तो स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह तो क्षत्रिय का प्रधान धर्म है। अत: युद्ध में यदि वीरगति प्राप्त हो तो भी हमें पश्चात्ताप नहीं है। 'मुझ जैसा वीर पुरुष धर्म रक्षार्थ केवल ब्राह्मणों को नमस्कार करता है। दूसरे किसी को मैं कुछ नहीं समझता। पिताजी मुझे जो राज्य दे चुके हैं, वह मेरे जीवित रहते मुझसे कोई ले नहीं सकता। बाल्यावस्था में मेरे अज्ञान के कारण ही पाण्डवों को राज्य मिल गया था। अब वह उन्हें फिर नहीं मिल सकता। अपने जीवित रहते मैं सुई की नोंक रखी जा सके इतनी भूमि भी पाण्डवों को नहीं दूंगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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