पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. शान्ति दूत
'तुम में लज्जा, शास्त्र ज्ञान आदि सद्गुण हैं। अत: तुम्हें माता-पिता की आज्ञा में रहना चाहिए। तुम्हारे पिता पाण्डवों से सन्धि करने के पक्ष में हैं। अत: तुम्हें और तुम्हारे मन्त्रियों को यह प्रस्ताव अच्छा लगना चाहिए। जो मोहवश हित की बात नहीं सुनता उसका कोई काम पूरा नहीं होता। उसके पल्ले केवल पश्चात्ताप पड़ता है। जो अपने मत को छोड़कर हित की बात सुनता तथा उसका आचरण करता है उसे संसार में सुख, समृद्धि, सुयश मिलता है। जो अपने गुरुजन सत्पुरुषों को त्यागकर नीच प्रकृति के पुरुषों का संग करता है वह बहुत बड़ी विपत्ति में पड़ जाता है और उससे निकलने का मार्ग भी उसे नहीं मिलता है। 'यद्यपि तुमने जन्म से ही अपने भाइयों से कपट का व्यवहार किया है किन्तु पाण्डवों ने सदा तुम्हारे प्रति सद्भाव ही रखा है। तुम्हें भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार रखना चाहिए। 'श्रेष्ठ पुरुष अर्थ, धर्म और काम को प्राप्त कराने वाला प्रयत्न करते हैं। यदि इनमें कहीं विरोध हो, तीनों की प्राप्ति संभव न हो तो वे धर्म के ही अनुकूल रहते हैं। मध्यम पुरुष अर्थ को प्रधान मानते हैं और इन्द्रियलोलुप, धर्मविमुख पुरुष तो अधम है। काम प्राप्ति की वासना में पड़कर वह नष्ट हो जाता है। विद्वान लोग त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय धर्म को ही मानते हैं। 'जो पुरुष अपने सद्व्यवहार करने वालों से दुर्व्यवहार करता है वह कुल्हाड़ी में लगे काष्ठ के समान स्वयं अपने ही कुल का संहार कर लेता है। जिनमें किसी को नीचा दिखाने की इच्छा न हो, उनकी बुद्धि को लोभ से भ्रष्ट नहीं करना चाहिए। जिसकी बुद्धि लोभ से दूषित नहीं है उसी का मन कल्याण साधन में लग सकता है। ऐसा पुरुष संसार में किसी का अनादर नहीं करता। 'क्रोध से आविष्ट व्यक्ति अपना हिताहित कुछ सोच नहीं सकता। अत: दुर्जनों की अपेक्षा यदि तुम पाण्डवों का संग करोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा। तुम पाण्डवों की ओर से मुख मोड़कर किसी दूसरे के भरोसे जो अपनी रक्षा करना चाहते हो, वह सफल नहीं होगी। कर्ण, दु:शासन, शकुनि के हाथ में अपने ऐश्वर्य को सौंपकर तुमने जो पृथ्वी को जीतने की आशा की है वह स्वप्न जैसी है। 'तुम्हारे समीप जितनी सेना एकत्र है, तुम्हारे जितने भी सहायक हैं -भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, जयद्रथ आदि ये सब मिलकर भी क्रोध में भरे भीमसेन और अर्जुन के आगे टिक नहीं सकते। युद्ध में अर्जुन को पराजित करना सुर, असुर तथा गन्धर्वों के भी वश में नहीं है। अत: तुम युद्ध में मन मत लगाओ। 'विराट नगर में अकेले अर्जुन से युद्ध करके इन सब महारथियों ने कौन-सा सुयश प्राप्त किया था ? जिसने संग्राम में साक्षात शिव को सन्तुष्ट कर दिया उस अजेय और विजयी गान्डीवधन्वा को तुम जीतने की आशा करते हो ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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