पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. शान्ति दूत
'मेरे विचार से दोनों पक्षों में सन्धि होना बहुत कठिन नहीं है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिए। मैं पाण्डवों को नियम में रखूँगा। आप पाण्डवों जैसे रक्षक प्रयत्न करके भी नहीं पा सकते। यदि पाण्डव-कौरव मिल जायँ तो संसार में आपका सामना करने का साहस कौन कर सकता है। इस मेल से आप सहज ही लोकपालों का आधिपत्य प्राप्त कर लेंगे। आप पहिले के समान पाण्डवों को आगे रखकर उनका पालन करेंगे तो सम्पूर्ण पृथ्वी का आनन्दपूर्वक उपभोग कर सकेंगे। 'पाण्डवों ने आपको प्रणाम करके कहा है - 'हमने साथियों सहित आपकी आज्ञा से ही इतने दिनों दु:ख भोगा है। हम बारह वर्ष वन में रहे और तेरहवाँ वर्ष अज्ञातरूप से व्यतीत किया है। वनवास के समय यही नियम बना था कि लौटने पर आप हमारे पिता के स्थान पर रहेंगे। हमने वह शर्त पूर्णत: पालन की है। अत: अब आप भी उस समय के निश्चय के अनुसार व्यवहार करें। हमें अब अपना राज्य भाग मिल जाना चाहिए। आप धर्म और अर्थ के स्वरूप को जानते हैं इसलिए आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए। हम लोग यदि मार्ग भ्रष्ट हो रहे हों तो हमें सत्पथ पर लाइए और आप स्वयं भी सन्मार्ग पर स्थित होइये।' श्रीकृष्ण ने कहा - 'पाण्डुपुत्रों ने सभी सभासदों से कहा है कि आप सब धर्मज्ञजनों के मध्य कोई अनुचित बात नहीं होनी चाहिए। यदि सभासदों के देखते हुए अधर्म से धर्म का, असत्य से सत्य का नाश हो तो उनका भी नाश हो जाता है। पाण्डव लोगों ने धर्म के अनुसार सत्य एवं न्याय की बात ही कही है। अत: राजन आप पाण्डवों का राज्य दे दीजिये। मुझे आपसे यही अनुरोध है कि इन क्षत्रियों को आप मृत्यु-पाश से बचा लीजिए। क्रोध तथा लोभ के वश में न होकर पाण्डवों को उनका पैतृक राज्य दे दीजिए। पाण्डव आपकी सेवा को उद्यत हैं और युद्ध के लिए भी। दोनों में-से आपको जो बात हितकर लगे उसे ही स्वीकार कीजिये।' सभी सभासद श्रीकृष्ण के वचन सुनकर चुप रह गये। मन ही मन वे अनेक प्रकार की बातें सोच रहे थे। इसी समय भगवान परशुराम ने धृतराष्ट्र को प्राचीन आख्यान सुनाकर बतलाया कि 'अर्जुन साक्षात नर हैं और श्रीकृष्ण नारायण। इनसे युद्ध करने में किसी का कल्याण नहीं है। पाण्डवों से सन्धि कर लो।' महर्षि कण्व ने भी दुर्योधन को समझाया - 'तुम्हें युधिष्ठिर के साथ सन्धि कर लेनी चाहिए। कौरव-पाण्डव मिलकर पृथ्वी का पालन करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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