पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
37. दुर्योधन का आतिथ्य अस्वीकार
महाराज धृतराष्ट्र के और मेरे भी आप सम्मान्य सम्बन्धी हैं। अत: इसका कारण क्या है कि आप मेरा आतिथ्य स्वीकार नहीं करते हैं ?’ श्रीकृष्ण गम्भीर हो गये। उन्होंने स्पष्ट कह दिया – ‘मैं इस समय दूत हूँ। नियम यह है कि दूत अपना उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर ही भोजनादि ग्रहण करते हैं। अत: जब मेरा काम पूरा हो जाय, जब तुम भी मेरा और मेरे साथियों का सत्कार कर सकते हो। काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर मैं धर्म का त्याग नहीं करता।’ अब स्वर अत्यधिक गम्भीर हो गया –‘सुयोधन ! भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है अथवा आपत्ति में पड़कर किया जाता है। आपत्ति में पड़कर भूखों मैं मर नहीं रहा हूँ और तुम्हारा मेरे प्रति प्रेम है नहीं।’ चलते-चलते श्रीकृष्ण ने इतना और कह दिया –‘पाण्डव तुम्हारे भाई हैं। वे सदा अपने स्वजनों के अनुकूल रहे हैं। उनमें सभी सद्गुण हैं। तुम बिना कारण जन्म से ही उनसे द्वेष करते आये हो। यह द्वेष कभी उचित नहीं होता। ‘पाण्डव धर्म में स्थित हैं। जो उनसे द्वेष करता है, वह तो मुझसे भी द्वेष करता है। जो उनके अनुकूल हैं, वह मेरे भी अनुकूल है। धर्मात्मा पाण्डवों से तुम मुझे अभिन्न समझो। ‘जो पुरुष काम-क्रोध का दास है तथा मूर्खतावश गुणवानों से विरोध करता है उसे अधम कहते हैं। शास्त्रज्ञ लोग अधम पुरुष का अन्न त्याज्य कहते हैं। तुम्हारे सब अन्न का सम्बन्ध दुष्ट पुरुषों से है अत: वह किसी सत्पुरुष के आहार के योग्य नहीं है। इस नगर में इस समय केवल विदुरजी का अन्न ही ग्रहण करने योग्य है।’ दुर्योधन इस उत्तर से मन ही मन बहुत रूष्ट हुआ किन्तु उसके तुष्ट रुष्ट होने पर हृषीकेश क्यों ध्यान देने लगे। वे उसके भवन से बाहर आये। श्रीकृष्ण के साथ आये लोग राजा धृतराष्ट्र के राजभवन के बाहर ही थे। विदुरजी उन लोगों की उपयुक्त व्यवस्था में लग गये थे। श्रीकृष्ण कहीं भी रुकें, उनके साथ आये सात्यकि प्रभृति को तो हस्तिनापुर में कृतवर्मा के सेनापतित्व में आयी द्वारिका की एक अक्षौहिणी सेना के साथ ही ठहरना था। यह सेना श्रीद्वारिकाधीश ने स्वयं दुर्योधन को दी थी। केवल दारुक रथ लेकर दुर्योधन के भवन के द्वारा पर खड़ा अपने स्वामी की प्रतीक्षा कर रहा था। उस भवन से एकाकी श्रीकृष्ण निकले और आकर रथ में बैठ गये। दुर्योधन ने द्वार तक आकर पहुँचाने की शिष्टता भी नहीं निभायी थी। उसके मन्त्री या दूसरे साथी भी द्वार तक नहीं आये थे। 'यह गोपकुमार दासीपुत्र विदुर का ही अतिथि होने योग्य है।' श्रीकृष्ण के लौटते ही दुर्योधन ने कहा था। उसके समर्थक भी इतने अशिष्ट नहीं थे कि इसमें उसका साथ देते। गरुड़ध्वज रथ तो विदुर के गृह की ओर चल चुका था । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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