पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. स्वागत की तैयारी
‘धृतराष्ट्र ! तुम्हारे इस मन्दमति पुत्र को मौत ने घेर लिया है।’ भीष्म के नेत्र अंगार हो उठे। वे उठकर खड़े हो गये – ‘यह अपने सुहृदों की हित की बात सुनना ही नहीं चाहता। यह तो कुमार्ग ही पकड़ता है। तुम नहीं जानते कि यदि यह पापिष्ठ श्रीकृष्ण को पकड़ने खड़ा हुआ तो अपने समर्थकों के साथ क्षणार्ध में ही नष्ट हो जायेगा। मैं इसकी ये अनर्थ पूर्ण बातें सुन नहीं सकता।’ पितामह भीष्म क्रोध में भरे वहाँ से चले गये। दुर्योधन अपने को बहुत नीतिज्ञ समझता था। श्रीकृष्ण ने उसके बनवाये विश्राम स्थानों की उपेक्षा कर दी थी। अत: साम और दान से उन्हें अपनी ओर कर लेने की सम्भावना समाप्त हो गयी थी। पाण्डवों के साथ उनका भेद करने का कोई उपाय नहीं था। अत: दुर्योधन ने दण्ड के मार्ग को नीतिज्ञता माना था किन्तु अब लगा कि बात उसके मुख से अनवसर निकल गयी। भीष्म के क्रोध ने समझा दिया कि ऐसा नहीं करना होगा अन्यथा उसके जो आज समर्थक हैं उनमें भी बहुत से उसके विरुद्ध खडे़ हो जा सकते हैं। दुर्योधन ने अपनी भूल स्वीकार कर पिता को प्रसन्न कर लिया। वह विदुर को लेकर श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारी में लग गया। उसका यह प्रयास था कि स्वागत की कितनी बड़ी तैयारी उसने की है, इसका भरपूर प्रचार हो। अधिक से अधिक लोग इसे जान लें कि दुर्योधन में श्रीकृष्ण के प्रति कितना सद्भाव है। उसके स्वागत में धूमधाम, चमक-दमक और आडम्बर की बहुलता सर्वत्र स्पष्ट हो उठी। यह ऐसा स्वागत जो श्रीकृष्ण को सदा अप्रिय रहा है किन्तु उनका स्वभाव तो वही समझ पाता है जिस पर वे अनुग्रह करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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