पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
31. संजय द्वारा संदेश
रुष्ट, क्रुद्ध श्रीकृष्ण के अरुण मुख की ओर देखना दुष्कर हो गया। उनका मेघ गम्भीर स्वर, वे कह रहे थे – ‘संजय ! क्या चाहते हो कि जगत में दुष्टों, दुराचरणकारियों को खुलकर खेलने का अवसर मिलता रहे ? उनकी ही वाणी सफल हो ? ऐसा नहीं हो सकता। मैं ऐसा होने नहीं दे सकता।इतने पर भी मैं शान्ति चाहता हूँ। मैं स्वयं हस्तिनापुर आ रहा हूँ। यदि पाण्डवों का स्वार्थ नष्ट किये बिना मैं कौरवों के साथ सन्धि कराने में सफल हुआ तो मैं अपने इस कार्य को बहुत ही पुनीत और अभ्युदयकारी मानूँगा।’ ‘संजय ! पाण्डव वृक्ष हैं और कौरव लताओं के समान हैं। वृक्ष का सहारा लिये बिना लताएँ बढ़ नहीं सकतीं। पाण्डव धृतराष्ट्र की सेवा के लिए भी प्रस्तुत हैं और संग्राम के लिए भी। अब राजा धृतराष्ट्र ही निर्णय करें कि उन्हें क्या स्वीकार है। पाण्डव शक्तिशाली होने पर भी सन्धि चाहते हैं।’ अन्तिम चेतावनी दी उन सर्वसमर्थ ने – ‘कोरा उपदेश व्यर्थ है संजय ! यदि कौरव अभिमानवश पाण्डवों का स्वत्व उन्हें नहीं देते तो युद्ध अनिवार्य है और मैं बताये देता हूँ कि यदि युद्ध होता है तो धृतराष्ट्र के पुत्रों को महानाश से कोई बचा नहीं सकेगा।’ संजय बेचारा क्या उत्तर देता। उसने सिर झुका दिया। युधिष्ठिर ने उसे सत्कृत करके सब गुरुजनों को अभिवादन कहने को कहकर विदा किया। संजय एक बार और श्रीकृष्णचन्द्र से अन्त:पुर में मिलकर हस्तिनापुर के लिए विदा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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