पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29. दुर्वासा से परित्राण
दुर्वासा जी ने कहा –‘मैं जानता हूँ कि पाण्डव श्रीहरि के प्रिय भक्त हैं। एक बार अम्बरीष का अपराध करके मैं भोग चुका हूँ। अब युधिष्ठिर से भोजन बनवाकर, वनवास के कठिन समय में उनका इतना अधिक आहार नष्ट करना पड़ेगा। वे रुष्ट होंगे तो श्रीकृष्ण का चक्र चला ही समझो। अत: अब यहाँ से चुपचाप भाग चलो।’ जब सुप्रसिद्ध तपस्वी रुद्रावतार गुरुदेव ही भय के कारण भाग खड़े हुए तो शिष्यों में से किसका साहस कि वह मुड़कर पीछे भी देखे। सहदेव वहाँ पहुँचे तो उन्हें सरोवर पर कोई नहीं मिला। आसपास ढूंढ़ा और समीप के लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा – ‘वे लोग तो भयभीत के समान पूरे वेग से भागते चले गये।’ सहदेव लौट आये। अब युधिष्ठिर ने चिन्तित होकर कहा – ‘महर्षि दुर्वासा का क्या ठिकाना। अब वे रात्रि को या पता नहीं कब अकस्मात आ जायँ। यह तो बहुत आशंका की बात हो गयी।’ श्रीकृष्णचन्द्र हँसे – ‘वे अब आपके समीप कभी नहीं आयेंगे।’ उन मधुसूदन ने बतलाया कि ‘दुर्योधन की प्रार्थना के अनुसार दुर्वासा जी आये थे; किन्तु इस विपत्ति में द्रौपदी ने उन्हें पुकार लिया। कोई आर्त होकर पुकारे तो वे कहाँ दूर रहते हैं। अब दुर्वासा तृप्त होकर भाग चुके हैं।’ इस प्रकार पाण्डवों को आश्वस्त करके वे जनार्दन उनसे विदा हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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