पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. द्रौपदी-सत्यभामा संवाद
उस समय द्रौपदी और सत्यभामा अलग मिलकर बैठी थीं। बहुत दिनों के पश्चात दोनों मिली थी। राजसूय यज्ञ के पश्चात ऐसा अवसर नहीं आया था। ऐसे अवसरों पर दोनों कुलों की चर्चा स्वाभाविक थी। परिहास चल रहा था परस्पर। ऐसी ही चर्चा के मध्य सत्यभामा ने पूछा – ‘याज्ञसेनि ! तुम्हारे पति लोकपालों के समान प्रभावशाली हैं, बलवान हैं, फिर भी वे तुमसे कभी रुष्ट नहीं होते। वे तुम्हारे वश में रहते हैं। तुम्हारा मुख देखते रहते हैं। ऐसी कौन-सी विद्य तुम्हारे पास है? तुम उनसे कैसे व्यवहार करती हो? यह रहस्य मुझे भी बतलाओ। मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्नान, मन्त्र, औषधि, विद्या, कला, हवन अथवा जड़ी बतलाओ जो यश और सौभाग्य की वृद्धि करने वाला हो और श्यामसुन्दर उससे सदा मेरे अधीन रहें।’ यह सुनकर पतिव्रता पांचाली बहुत गम्भीर स्वर में बोली – ‘बहिन ! तुम मुझसे दुराचारिणी स्त्रियों की बात क्यों पूछती हो ? तुम बुद्धिमती श्रीकृष्ण पट्टमहिषी हो, ऐसी बात मन में भी लाना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है। यह तो उल्टा मार्ग है। जैसे ही पति को पता लगता है कि गृहदेवी उसे वश में करने के लिए मन्त्र या तन्त्र प्रयोग कर रही है तो उसका स्नेह समाप्त हो जाता है और वह उससे वैसे ही सावधान तथा दूर रहने लगता है जौसे लोग घर में घुसे सर्प से रहते हैं। ऐसी अवस्था में घर में शान्ति या सुख कैसे रह सकता है?’ ‘इस प्रयत्न में कई प्रकार के अनर्थ हो सकते हैं। धूर्त लोग यन्त्र–मन्त्र के बहाने ऐसी वस्तुएँ दे देते हैं जिससे भयंकर रोग हो जाते हैं। पति के शत्रु इसी प्रकार उन्हें विष तक दे देते हैं। ऐसी स्त्रियाँ अपनी दुर्बुद्धि के कारण पति को अनजान में ही ऐसी वस्तुएं दे देती हैं कि उन्हें जलोदर, कुष्ठ, नपुसंकता, जड़ता, बधिरता जैसे रोगों से ग्रस्त होना पड़ाता है। स्त्री को किसी प्रकार अपने पति का अप्रिय नहीं करना चाहिए।’ अब द्रौपदी ने अपनी चर्चा सुनायी। उसने कहा – ‘सत्यभामा, मैं अहंकार और काम-क्रोध छोड़कर सब पाण्डवों की और उनकी दूसरी सब पत्नियों की सावधानी पूर्वक सेवा करती रही हूँ। ईर्ष्या द्वेष से दूर रहकर केवल सेवा के लिए ही मैं अपने पतियों के साथ सब व्यवहार करती हूँ। इतना करके भी मैं अभिमन नहीं करती। मेरी वाणी कभी कठोर न हो इसका ध्यान रखती हूँ। किसी के भी दोष पर दृष्टि नहीं डालती।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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