पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वन में मिलन
श्रीकृष्णचन्द्र ने द्रौपदी के सम्मुख प्रतिज्ञा की – ‘आकाश भले फट जाय, हिमालय खण्ड-खण्ड हो जाय और समुद्र सूख जाय किन्तु मेरी वाणी मिथ्या नहीं हो सकती, तुम साम्राज्ञी हो और साम्राज्ञी बनोगी। अर्जुन ने द्रौपदी को समझाकर शान्त किया। वे ठीक ही कह रहे थे – ‘श्रीकृष्ण की सहायता हमें प्राप्त है तो सुर भी हमें पराजित नहीं कर सकते। धृतराष्ट्र के पुत्रों में धरा ही क्या है ?’ श्रीकृष्णचन्द्र ने धर्मराज से कहा – ‘मैं द्वारिका में होता तो आपको इतना दु:ख नहीं उठाना पड़ता। कौरव न भी बुलाते तो भी मैं हस्तिनापुर आ जाता और द्यूत क्रीड़ा होने ही नहीं देता। द्युत तो सम्पत्ति, विनाश एवं संकटों को आमन्त्रित करने का मार्ग है। धृतराष्ट्र और उनके पुत्र मेरे समझाने से न मानते तो मैं उन्हें बलपूर्वक रोक देता।’ युधिष्ठिर ने पूछा – ‘आप उस समय कहाँ थे ?’ इसके उत्तर में श्रीकृष्णचन्द्र ने बतलाया कि जब वे इन्द्रप्रस्थ से द्वारिका पहुँचे तो सौभ-विमान के स्वामी मायावी शाल्व ने द्वारिका पर आक्रमण कर रखा था। उसके साथ युद्ध में वे उलझ गये।[1] उसने समुद्र के मध्य एक दुर्गम टापू को अपना युद्धकालीन केन्द्र बना रखा था। उसे और उसके विमान को नष्ट करते ही दन्तवक्र आ पहुँचा था। अत: उस समय हस्तिनापुर की सुधि नहीं ली जा सकी। धर्मराज युधिष्ठिर से अनुमति लेकर उन्हें तथा भीमसेन को प्रणाम करके , अर्जुन को हृदय से लगाकर, नकुल-सहदेव से वन्दित होकर श्रीकृष्ण सुभद्रा और उसके पुत्र अभिमन्यु को साथ लेकर द्वारिका लौटे। द्रौपदी ने उन्हें तथा सुभद्रा और उसके पुत्र अभिमन्यु कोक साथ लेकर द्वारिका लौटे। द्रौपदी उन्हें तथा सुभद्रा को अपने अश्रुओं से भिगो दिया था। धृष्टद्युम्न द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को लेकर पांचाल गये। शिशुपाल का पुत्र धृष्टकेतु अपनी बहिन करेणुमती (नकुल की पत्नी) को लेकर अपनी राजधानी शुक्तिमती नगरी गया। सभी सम्बन्धी, मित्र नरेश अपने देशों को लौटे क्योंकि धर्मराज युधिष्ठिर अपने वचन पद दृढ़ थे। अभी कुछ भी किया जाय इस पक्ष में वे नहीं थे। वनवास की अवधि पूर्ण होने पर सबने उनकी सहायता करने का आश्वासन दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह शाल्ववध की कथा ‘श्रीद्वारिकाधीश’ में गयी है।
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