पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
कर्मयोग, भक्तियोग अथवा ज्ञानयोग में ईश्वराश्रय की बात तो ठीक। ईश्वर आराध्य है और उसकी कृपा सबको अपेक्षित है, यह भी ठीक, किन्तु कर्म को योग, प्रेम को योग तथा ज्ञान को योग कौन बनायेगा ? साधारण प्राणी की जिजीविषा उससे अनर्थ न करावें, यही बहुत है। अनेक अनेक जन्मों का वह पुण्यात्मा हुआ तो स्वार्थ उसे सकाम कर्म में लगाने में असमर्थ रहेगा, किन्तु उसका निष्काम कर्म कर्मयोग कैसे बनेगा? इस ओर उसका मार्गदर्शन कौन करेगा? यह तो उसकी सहज प्रवृत्ति का विषय नहीं है। हमारे राग-द्वेष मन इन्द्रियों में जमे बैठे हैं। बुद्धि भी इनके ही द्वारा प्रभावित है। कहीं बहुत भावना प्रवण व्यक्ति हुआ तो उसका राग काम न बनकर प्रेम बन जा सकता है, किन्तु प्रेमयोग का रूप कौन देगा उसे? प्रेम तो पराये से होता नहीं- भले वह अनदेखा हो, पर अपना ही और ईश्वर अपना है, यह अनुभूति तो हमारी है नहीं। यह आस्था कौन जगावेगा? हमारी बुभुत्सा को भक्ति का रूप कौन देगा? कुतूहल स्वाभाविक है और जिज्ञासा भी जागती है, किंतु सविशेष जगत् में रहने वाले सविशेष व्यक्ति के अन्त:करण में निर्विशेष के प्रति जिज्ञासा और उसमें आस्था? इन सबके लिये अदृश्य ईश्वर सहायक नहीं हो सकता। इसीलिए सभी धर्मों-सम्प्रदायों में प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शक गुरु की अनिवार्य आवश्यकता मानी गयी है। इस मार्ग दर्शन की परम्परा को प्रचलित करने के लिए सर्वेश्वर परम पुरुष पुरुषोत्तम धरा पर समय-समय पर अवतीर्ण होता है। वहीं जगद् गुरु है, वही प्राप्य है और वही अपनी प्राप्ति के साधनों का स्वयं निर्देष्टा भी है। उस नर के सखा एवं परमोपदेष्टा का हम चिन्तन करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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