पहिलै प्रनाम नँदराइ सौ।
ता पाछै मेरौ पालागन, कहियौ जसुमति माइ सौ।।
बार एक तुम बरसाने लौ, जाइ सबै सुधि लीजौ।
कहि वृषभानु महर सौं मेरौ, समाचार सब दीजौ।।
श्रीदामाऽदि सकल ग्वालनि कौ मेरौ कोतौ भेट्यौ।
सुख संदेस सुनाइ सबनि कौ, दिन दिन कौ दुख मेट्यौ।।
मित्र एक मन बसत हमारै, ताहि मिलै सुख पाइहौ।
करि करि समाधान नीकी बिधि, मोकौ माथौ नाइहौ।।
डरपहु जनि तुम सघन कुंज मैं, है तहँ के तरु भारी।
बृंदावन मति रहति निरंतर, कबहुँ न होति निनारी।।
ऊधौ सौ समुझाइ प्रगट करि, अपने मन की बीती।
'सूरदास' स्वामी सौ छल सौ, कही सकल ब्रज प्रीती।। 3449।।