पवन-पुत्र बोल्यौ सतिभाइ ।
जानि सिराति राति बातनि मैं, सुनौ भरत चित लाइ।
श्रीरघुनाथ सँजीवनि कारन, मोकौं इहाँ पठायौ।
भयौ अकाज अर्द्धनिसि बीती, लछिमन-काज नसायौ।
स्यौं परबत सत बैठि पवनसुत, हौं प्रभु पै पहुँचाऊँ।
सूरदास प्रभु-पाँवरि मम सिर इहिं बल भरत कहाऊँ॥155॥