- परमात्मा तु देहं व्याप्यवतिष्ठते। [1]
परमात्मा (सभी प्राणियों के) शरीर के अंदर व्याप्त होकर स्थित है। मनसा चान्यदाकाड़्क्ष्न् परं न प्रतिपद्यते। [2] मन में अन्य कामना होती है इसलिये परमात्मा नहीं मिलता।
- मनस्यंतर्हितं सर्वं स वेदोत्तमपूरुष:। [3]
मन में जो छिपा है वह सब उत्तम पुरुष परमात्मा जानता है।
- निशि चाहनि चात्मानं योजयेत् परमात्मनि। [4]
दिन और रात अपने मन को परमात्मा में लगायें।
- आत्मा ह्येवात्मनो ह्येक: कोऽन्यस्मात्परो भवेत्। [5]
एक परमात्मा ही अपना है उससे अधिक अपना और कौन हो सकता है।
- यस्य प्रसादं कुरुते स वैतं द्रष्टुमर्हति। [6]
जिस पर ईश्वर कृपा करता है वही उसका दर्शन कर सकता है।
- लोकाध्यक्षं स्तुवन् नित्यं सर्वदु:खातिगो भवेत्। [7]
लोकाध्यक्ष की नित्य स्तुति करने से ऋजु सब दु:खों से पार हो जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत147.8
- ↑ शांतिपर्व महाभारत206.21
- ↑ शांतिपर्व महाभारत216.8
- ↑ शांतिपर्व महाभारत317.18
- ↑ शांतिपर्व महाभारत318.104
- ↑ शांतिपर्व महाभारत336.20
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत149.6
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