पतित पावन हरि, बिरद तुम्हारौ कौनैं नाम धरयौ।
हौं तौ दीन, दुखित, अति दुरबल, द्वारैं रटत परयौ।
चारि पदारथ दिए, सुदामा तंदुल भेंट धरयौ।
द्रुपद सुता कौ तुम पति राखी, अंबर दान करयौ।
संदोपन सुत तुम प्रभु दीने, विद्यापाठ करयौ।
वेर सूर की निठुर भए प्रभु, मेरी कछु न सरयौ।।।133।।