पठवत जोग कछू जिय लाज न।
सुनियत जंत्र ताँत तै जानी, कपट राग रुचि बाजन।।
जिय गहि लई क्रूर के सिखऐ, मोह होत नहिं राजन।
सब सुधि परी वचन कन टोए, ढके रहौ मुख भाजन।।
यह नृप नीति रहौ कौनैहु जुग, नेह होत जस आजन।
ताहूँ तजौ सुरति नहिं आवत, दुख पाए जन माजन।।
करि दासी दुलहिनि भए दूलह, फिरत ब्याह सू साजन।
‘सूर’ बड़े भुवभूप कस हन, वा कुबिजा के काजन।।3771।।