नैननि प्रान चोरि लै दीने।
समुझत नही बहुरि समुझाए, अति उतकंठ नवीने।।
अतिही चतुर, चातुरी जानत, सकल कला जु प्रवीने।
लोभ लिये परबस भए, माई मीन ज्यौ बसी भीने।।
कहा कहौ कहिबे लायक नहिं, मते रहत नर हीने।
आपु बँधाइ पूँजि लै सौपी, हरि-रस-रति के लीने।।
ज्यौ डोरै बस गुडी देखियत डोलत संग अधीने।
'सूरदास' प्रभु रूप सिंधु मै, मिले सलिलगुन कीने।।2378।।