नेमहिं मैं हरि आइ रहैंगे।
मुरली सौं तुम कछू कहौ जनि, ऐसेहिं तुमहिं मिलैगे।।
वै अंतरजामी सब जानत, घट-घट की जो प्रीति।
जाकौ जैसौ भाव सखी री, ताहि मिलैं तिहिं रीति।।
मातु-पिता-कुलकानि-लाज तजि, भजी जनम तैं जाहि।
काहे कौं मुरली की डाहनि अब तजियै री ताहि।।
सोरह सहस एक मन आगरि, नागरि मुरली जानि।
सूर स्याम कौं भजौ निरंतर, जासौं है पहिचानि।।1345।।