नृपति रहूगन कैं मन आई 2 -सूरदास

सूरसागर

पंचम स्कन्ध

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राग बिलावल
जड़भरत-रहूगण-संवाद



जिय कौं सुख-दुऽख तन सँग होइ। जौ बिचरै तन कै सँग सोइ।
देहऽभिमानी जीवहिं जानै। ज्ञानी तन अलिप्त करि मानै।
तुम कह्यौ मरिबे की तोहिं चाह। तब काहू कौं है यह राह।
कहा जानि तुम मोसौं कइयौ। यह सुनि, रिषि-स्वरूप नृप लह्यौ।
तजि सुखपाल रह्यौ गहि पाइ। मैं जान्यौ, तुम हौ रिषिराइ।
भृगु कै दुर्बासा तुम होहु। कपिल, कै दत्त, कह्यौ तुम मोहु।
कवहूँ सुर, कवहूँ नर होइ। कबहूँ राव रंक जिय सोइ।
जीव कर्म करि बहु तन पचै। अज्ञानी तिहिं देखि भुलावै।
ज्ञानी सदा एक रस जानै। तन कैं भेद भेद नहिं मानै।
आत्म अजन्म सदा अबिनासी। ताकों देह-मोह बड़ फाँसौ।
रिषभ-सुपुत्र भरत मम नाम। राज छाँडि़, लियौ बन-विस्राम।
तहँ मृगछौना सौं हित भयौ। नर-तन तजि कै मृग-तन लयौ।
अब मैं जन्म विप्र कौ पायौ। सब तजि, हरि-चरननि चित लायौ।
तातैं ज्ञानी मोह न करै। तन-कुटुंब सौं हित परिहरै।
जब लगि भजै न चरन मुरारि। तब लगि होइ न भव-जल पार।
भव-जल मैं नर बहु दुख लहै। पै वेराग-नाव नहिं गहै।
सुत-कलत्र दुर्वचन जो भाषै। तिन्हैं मोह-वस मन नहिं राखै।
जो वै वचन और काउ कहै। तिनकौं सुनि कैं सहि नहिं रहै।
पुत्र अन्याइ करै बहुतेरै। पिता एक अवगुन नहिं हेरै।
और जौ एक करै अन्याइ। तिहिं बहु अवगुन देह लगाइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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