नीबी ललित गही जदुराइ।
जबहिं सरोज धरयौ श्रीफल पर, तब जसुमति गई आइ।
ततछन रुदन करत मनमोहन, मन में बुघि उपजाइ।
देखौ ढीठि देति नहिं माता, राख्यौ गेंद चुराइ।।
तब वृषभानु सुता हँसि बोली, हम पै नाहिं कन्हाइ।
काहे कौं झकझोरत नोखे, चलहु न देउंं बताइ।।
देखि बिनोद बाल सुत कौ तब, महरि चली मुसुकाइ।
सूरदास के प्रभु की लीला, को जानै इहिं भाइ।।682।।