निरखि पिय रूप तिय चकित भारी।
किधौ वै पुरुष मैं नारि, की वै नारि मैं ही हौं पुरुष, तन सुधि बिसारी।।
आपु तन चितै सिर मुकुट, कुंडल स्रवन; अधर मुरली, माल बन बिराजै।
उतहिं पिय रूप सिर माँग बेनी सुभग, भाल बेदी बिंदु महा छाजै।।
नागरी हठ तजौ, कृपा करि मोहि भजौ, परी कह चूक सो कहौ प्यारी।
'सूर' नागरी प्रभु-बिरह-रस मगन भई, देखि छवि हँसत गिरिराज धारी।।2148।।