निरखत रूप नागरि नारि।
मुकुट पर मन अटकि लटक्यौ, जात नहिं निरुवारि।।
स्याम तन की झलक, आभा चंद्रिका झलकाइ।
बार बार बिलोकि थकि रही, नैन नहिं ठहराइ।।
स्याम मरकत-मनि-महानग सिखा निरतत मोर।
देखि जलधर हरष उर मैं, नहीं आनंद थोर।।
कोउ कहति सुरचाप मानौ, गगन भयौ प्रकास।
थकित ब्रजललना जहाँ तहँ, हरष कबहुँ उदास।।
निरखि जो जिहिं अंग राँची, तही रही भुलाइ।
सूर-प्रभु-गुन-रासि-सोभा, रसिक जन सुखदाइ।।1818।।