निरखत पिय प्यारी अँग अंग विरह सोभा -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


निरखत पिय प्यारी अँग अंग बिरह सोभा।
कबहूँ पिय चरन परति, कबहूँ भुज अंक भरति, कबहूँ जिय डरति, बचन सुनिबे की लोभा।।
कबहुँ कहति पिय सो, पिय, कबहूँ कहति प्यारी हो, हा हा करि पाइ परति बिकल भई बाला।
कबहुँ उठति, कबहुँ बैठि पाछै ह्वै रहति, कबहुँ आगै ह्वै बदन हेरि परी बिरह ज्वाला।।
काहै तुम कियौ मान, बोले बिनु जात प्रान, दंपति है संग दसा ऐसी उपजाई।
रीझे प्रिय 'सूर' स्याम, अंकम भरि लई बाम, बिरह द्वंद मेटि हरष हृदय मैं बसाई।।2149।।

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