नित्य धाम वृंदावन स्याम। नित्य रूप राधा ब्रजबाम।।
नित्य रास, जल नित्य बिहार। नित्य मान खंडिताऽभिसार।।
ब्रह्मरूप येई करतार। करन हरन त्रिभुवन येइ सार।।
नित्य कुंजसुख नित्य हिंडोर। नित्यहिं त्रिविध समीर झकोर।।
सदा बसत रहत जहँ बास। सदा हर्ष, जहँ नहीं उदास।।
कोकिल कीर सदा तहँ रोर। सदा रूप मन्मथ चितचोर।।
बिबिध सुमन बन फूले डार। उन्मत मधुकर भ्रमत अपार।।
नव पल्लव बन सोभा एक। बिहरत हरि सँग सखी अनेक।।
कुहू कुहू कोकिला सुनाई। सुनि सुनि नारि परम हरषाई।।
बार बार सो हरिहि सुनावति। ऋतु बसंत आयौ समुझावति।।
फाग-चरित-रस साध हमारै। खेलहिं सब मिलि संग तुम्हारै।।
सुनि सुनि 'सूर' स्याम मुसुकाने। ऋतु बसंत आयौ हरषाने।।2843।।