श्रीनारायणीयम्
सप्तषष्टितमदशकम्
भगवन्! आपके अंतर्धान हो जाने पर उनके मन में बड़ा संताप हुआ। विकसित कमल दल के समान विशाल नेत्रों वाली वे गोप किशोरियाँ एक साथ मिलकर वन वन में आपको खोजती हुई अपार विषाद में डूब गयीं।।4।।
उन सबके चित्त का प्रवाह आपकी ही ओर था। अतः वे ‘हा चूत (आम्र), हा चम्पक, हा कर्णिकार (कनेर), हा मल्लिके, हा मालती, हा नूतन वल्लरियो! क्या तुमने हमारे एकमात्र चित्तचोर नन्दकिशोर को देखा है।-’ इत्यादि रूप से विलाप करने लगीं।।5।।
कोई गोपी आपको ध्यान-नेत्र से देखकर बोली- ‘सखि! मैंने कमलनयन श्रीकृष्ण को देख लिया। यह रहे मेरे सामने।’ इस प्रकार व्याकुलतापूर्वक बोलती हुई उस सखी ने अपनी दूसरी सखियों के संताप को दूना बढ़ा दिया।।6।। |
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