श्रीनारायणीयम्
षष्टष्टितमदशकम्
विभो! चीर-हरण के दिन उनके वस्त्रापहरण की जो प्रतिज्ञा आपने की थी, उसके अनुसार रस-विवशचित्त हुई उन कान्तिमती सुन्दरियों का वस्त्रहरण भी किया।।7।।
नन्दनन्दन! आपके श्रीअंग में पसीने की छोटी-छोटी बूँदें उमड़ आयी थीं, आपका मुखारविन्द कुन्द-सदृश उज्ज्वल मुस्कान से सुशोभित था तथा आप त्रिभुवन के एकमात्र सुंदर पुरुष हैं, आपको अपने बाहुपाश में भरकर वे व्रजबालाएँ अत्यंत आनन्दित हुईं।।8।।
जब आपसे विरह होता है, तब आप अंगारमय (दाहक) प्रतीत होते हैं और जब समागम होता है, उस समय श्रृंगार-रसमय (शीतल) जान पड़ते हैं, परंतु आश्चर्य की बात यह है कि वहाँ संगम काल में भी आप सर्वथा अंगारमय (कोयले के समान कृष्ण कान्ति से युक्त) जान पड़ते हैं।।9।।
हे पवनपुराधीश्वर! श्रीराधारानी के उन्नत उरोजों का भलीभाँति आलिंगन करने के लिए लोलुप-चित्त रहने वाले आपकी मैं आराधना आलिंगन करने के लिए लोलुप-चित्त रहने वाले मैं आराधना करता हूँ। आप मेरे सारे रोगों को शान्त कर दीजिए।।10।।
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