श्रीनारायणीयम्
एकोनषष्टितमदशकम्
वन में पहुँचकर आप भी किसी घनी छाया वाले मनोरम वृक्ष के नीच बायें पैर को दायें और दायें पैर को बायें करके खड़े हो वंशी के छिद्रों में स्वर भरने लगते थे।।4।।
प्रभो! आपका वेणुनाद प्रकट हुआ। वह आकाशस्थित देवांगनाओं को प्रेमबाण से आहत एवं कम्पित किये देता था। उसे सुनकर पशु-पक्षियों के समुदाय भी निर्विकारभाव से स्थिर हो जाते थे तथा वह वंशीरव पत्थरों को भी पिघला देता था।।5।।
आपके हाथों की अंगुलियाँ वंशी के छिद्रों पर चञ्चलगति से फिर रही हैं। आपके चरण-पल्लव ताल के अनुसार संचलित हो रहे हैं। इस प्रकार खड़े होकर आप मुरली बजा रहे हैं। यह बात यद्यपि प्रत्यक्ष नहीं थी- परोक्ष में ही हो रही थी, तथापि मन से इसका चिन्तन करके व्रजांगनाएँ मोहित हो जाती थीं।।6।। |
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