श्रीनारायणीयम्
अष्टपञ्चाशत्तमदशकम्
तब आपने कहा- ‘अरे! अत्यंत भयभीत होने की आवश्यकता नहीं, तुम डरो मत। सब ओर से नेत्रों को अच्छी तरह मूँद लो।’ आपके इस आदेश से जब सबने नेत्र बंद कर लिये, तब कहाँ रहा वह दावानल और कहाँ गयी वह मुञ्जाटवी? सब के सब उसी क्षण भाण्डीर वट के समीप विद्यमान हो गये। यह कैसा आश्चर्य है।।5।।
‘हे ईश! आपकी जय हो, जय हो। आपकी यह कैसी माया है?’ ग्वालबालों के मुख से इस प्रकार अपनी स्तुति सुनकर आप हँसने लगे और नाना प्रकार के लीला-विलास में संलग्न हो गये। तत्पश्चात् जहाँ पाड़र आदि वृक्षों के पत्र-पुष्पादि के समुदायमात्र से गृहीत ग्रीष्म के ताप का अनुभव नहीं होने पाता था, उस वन प्रांत में आप पुनः विचरने लगे।।6।। |
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