श्रीनारायणीयम्
पञ्चमदशकम्
जब ये भूतगण, इंद्रियसमुदाय तथा उनके अधिष्ठातृ-देवता उत्पन्न होकर पृथक्-पृथक् ब्रह्माण्ड के निर्माण कार्य में समर्थ नहीं हुए, तब उन देवों ने नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति की। यों स्तुति किये जाने पर आपने उन तत्त्वों में प्रविष्ट होकर उनकी क्रियाशक्ति का उत्पादन किया और फिर उन्हें परस्पर संयुक्त करके इस हिरण्यमय ब्रह्माण्ड की रचना की।।9।।
वह अचेतन अण्ड जब सहस्रों वर्षों तक पूर्वरचित आवरण-जल में पड़ा रहा, तब आपने अपने अंश से उसमें प्रविष्ट होकर विभिन्न रूपों में उसे विभक्त करते हुए चौदह भुवनरूप विराट्संज्ञक शरीर का निर्माण किया। तत्पश्चात् आप हजारों हाथ-पैर-मस्तक आदि अवयवसमूहों से संयुक्त हो अखिल चराचर जीवस्वरूप में प्रकाशित हो रहे हैं। मरुत्पुराधिपः! वही आप सम्पूर्ण रोगों से मेरी रक्षा कीजिए।।10।। |
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