श्रीनारायणीयम्
त्रिपञ्चाशत्तमदशकम्
जब आप जम्बुक-दल का विनाश कर रहे थे, उस समय समान नाम होने के कारण[1] वरुण भय से व्याकुल हो उठे। मैं समझता हूँ, इसी कारण से उन्होंने अपने ‘जम्बुक’ नाम तो केवल वेद में ही विख्यात् रखा। उसे लोक में नहीं प्रसिद्ध होने दिया।।7।।
‘मुरारे! आपके अवतार का फल आज प्राप्त हो गया’, ऐसा कहते हुए देवताओं ने जब आपकी स्तुति की, तब आप बोले- ‘हाँ!’ सचमुच हमें यहाँ फल प्राप्त हो गया। ऐसा कहकर हँसते हुए आप ग्वालबालों के साथ तालफल खाने लगे।।8।।
वे ताड़ के फल बहुत बड़े-बड़े थे और गूदे से भरे थे। उनसे मीठा रस चू रहा था। उन्हें खाकर ग्वालबाल तृप्त हो गये और दर्प के साथ फलों की गठरी बाँधकर कंधे पर रख लिए। उन बालकों के साथ आप घर पर आये।।9।।
विभो! तदनन्तर ‘धेनुकासुर मारा गया, मारा गया’ यह कहते हुए ताल-वन में आकर लोग मीठे तालफलों को खाते थे और ‘श्रीकृष्ण की जय हो! श्रीकृष्ण चिरंजीवी हों!’ यों आपकी मंगलकामना एवं स्तुति करते थे। मरुत्पुराधीश्वर! रोग से मेरी रक्षा कीजिए।।10।।
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- ↑ वरुण का भी एक नाम जम्बुक है।
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