श्रीनारायणीयम्
अष्टचत्वारिंशत्तमदशकम्
गोविन्द! जब आपने उन दोनों वृक्षों को उखाड़ दिया, तब उन वृक्षों के मध्य भाग से दो महान् कान्तिमान् यक्ष प्रकट हुए। वे उसी क्षण स्तुतियों द्वारा आपका स्तवन करने लगे।।7।।
भगवान्! इससे आपने निश्चित कर दिया कि जगत् में ब्रह्मा-शिव आदि अन्य देवों के भक्त भी अधिकार क्रम से आपके भजनाधिकारी होते हैं; क्योंकि ये दोनों नलकूबर और मणिग्रीव रुद्र के सेवक थे। ये नारदमुनि की कृपा से आपकी चरण-शरण में आये और उत्तम भक्ति का वरदान प्राप्त करके पुनः अपने स्थान को चले गये।।8।।
तदनन्तर उन वृक्षों के उखड़ने से उत्पन्न हुए भयंकर शब्द के सुनने से सम्भ्रान्त हुए झुंड के झुंड गोप वहाँ आ पहुँचे। तब आपको बाँधने के कारण जो विशेषरूप से लजायी हुई थीं, उन आपकी माता यशोदा के मुख की ओर देखते हुए नन्द बाबा ने मुक्तिदाता आपको बन्धन से मुक्त कर दिया।।9।।
तब नन्दादि गोप ‘अहो! कैसा आश्चर्य है! इस समय यह बालक दोनों वृक्षों के बीच में पड़ गया था, परंतु इसे कोई चोट नहीं लगी- यह श्रीहरि की ही कृपा है।’ यों कहते हुए आपको घर ले गये। मरुत्पुराधीश्वर! रोग से मेरी रक्षा कीजिए।।10।।
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