श्रीनारायणीयम्
सप्तचत्वारिंशत्तमदशकम्
अयि भगवन्! सज्जन- मोक्षार्थी जिन्हें (शरमागति द्वारा) बाँधने की इच्छा करता है, उन्हीं आपको यशोदा रस्सी द्वारा बाँधना चाहती हैं। उन्होंने आपके शरीर पर बहुत सी रस्सियों को लगाया, परंतु अंत में वे देखती क्या हैं कि सभी रस्सियाँ दो अंगुल छोटी पड़ जाती हैं।।7।।
अहो हरे! यह देखकर सखियाँ आश्चर्यचकित होकर मंद-मंद हँसती हुई जिनकी ओर निहार रही थीं तथा जिनका शरीर पसीने से लथपथ एवं श्रांत हो रहा था, उन यशोदा की ओर देखकर नित्यमुक्त शरीर वाले होकर भी आपने कृपापरवश हो बन्धन ही स्वीकार कर लिया।।8।।
आपको बाँधकर ‘अरे नटखट! अब देर तक इस ओखली में बँधा पड़ रहा।’ यों कहकर जब यशोदा घर के भीतर चली गयीं, तब माखन लुटाते समय ओखली के खोखली में रखे हुए माखन को खाते हुए आप वहाँ बैठ गये।।9।।
तब देवगण ‘विभो! यदि आप अपाश-विषय-वासनारहित लोगों के लिये सुगम हैं तो सपाश-पाश वाली यशोदा के द्वारा कैसे बँध गये?’ इस प्रकार की स्तुतियों द्वारा आपका स्तवन करने लगे। हे वातनाथ! रोग से मेरी रक्षा कीजिए।।10।।
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