श्रीनारायणीयम्
एकचत्वारिंशत्तमदशकम्
घरों में युवतियाँ आपके सुन्दर रूप तथा हास की परस्पर कथाएँ कहती हुई उलझी रहती थीं। गृहकार्य समाप्त हो जाने पर वे प्रतिदिन आपका दर्शन करने आती थीं और आपको निहारकर अत्यंत आनन्दित होती थीं।।7।।
कोई कहती थी, ‘अहो! लाला मेरी ओर टकटकी लगाकर देख रहा है। कोई कहती थी, बच्चे ने मुझे देखकर मन्द-मन्द मुसकराया है। कोई हाथ पसारकर ‘आओ, मेरे पास आओ’- यों कहती थी। ईश! गोपवधुएँ आपके प्रति क्या-क्या चेष्टा नहीं करती थीं? अर्थात् वे आपको गोद में लेना, आलिंगन, करना, चूमना और लाड़ लड़ाना आदि सब कुछ करती थीं।।8।।
जब आपके शरीर-स्पर्श के कुतूहल से भरी हुई गोपिकाएँ आपको परस्पर एक के हाथ से दूसरी के हाथ में देती थीं, उस समय आप लाल कमलों की माला पर मँडराते हुए मधुलोभी भ्रमर की समानता को प्रकट करने लगे थे।।9।।
जिस समय यशोदा आपको गोद में लेकर स्तन पिलाती हुई आपके मुख की ओर निहारकर हँसती थीं, उस समय उन्हें वात्सल्य-स्नेह की कौन सी दशा नहीं प्राप्त होती थी अर्थात् स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च आदि सभी अवस्थाएँ क्रमशः उनके अंगों में प्रकट होने लगीं। हरे! ऐसे भक्तवत्सल आप मुझे इस रोग से बचाइये।।10।।
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