श्रीनारायणीयम्
एकोनचत्वारिंशत्तमदशकम्
तत्पश्चात् आपकी अनुजा के रुदन-शब्द से जिनकी नींद भंग हो गयी थी, उन दौड़ते हुए द्वारपालों द्वारा निवेदित प्रसव-वार्ता से ही जो पीड़ित हो उठा था और जिसके केशपाश अस्त-व्यस्त थे, वह भोजराज कंस तुरंत ही वहाँ आ पहुँचा; परंतु अपनी बहन के हाथ में कन्या देखकर वह असंतुष्ट सा हो गया।।3।।
पुनः ‘यह निश्चय ही कपटशाली मधुसूदन की माया हो सकती है’- यों सोच-विचार कर कंस ने देवकी की गोद में चिपटी हुई उस बालिका को उसी प्रकार खींच लिया, जैसे हाथी पुष्करिणी के भीतर से मृणालिका को झटक लेता है। तत्पश्चात् उसने मायारूपिणी आपकी अनुजा को शिला पर पटक दिया।।4।। |
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