श्रीनारायणीयम्
चतुर्थदशकम्
तत्पश्चात् जो सद्योमुक्त्याग्रही साधक होता है, वह (प्राणवायु को भ्रूमध्य-आज्ञाचक्र में स्थापित कर) लिंगशरीर का भी परित्याग कर देता है और पुनः ब्रह्मस्वरूप आप में लीन हो जाता है। परंतु जो ऊर्ध्वलोक का अभिलाषी होता है, वह ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके इंद्रियों के साथ ही ऊपर को चला जाता है।।10।।
तदनन्तर अग्नि, वासर एवं शुक्लपक्ष के अभिमानी तथा उत्तरायण के अभिमानी देवता उस जीव को ज्योतिश्चक्र तक पहुँचा देते हैं। वहाँ वह आपके परायण होकर आनन्दपूर्वक ध्रुवपद को प्राप्त कर लेता है। (इसका क्रम यों है- पहले अग्निदेवता अग्निलोक के मार्ग से जीव को वासराभिमानी देवता के हाथ में पहुँचाते हैं, वह उत्तरायण के षण्मासाभिमानी देवता को, वह संवत्सराभिमानी देवता को, वह देवलोक मार्ग से ले जाकर वायुदेवता को, वह वायुलोक के मार्ग से सूर्यदेवता को, वह आदित्यलोक के मार्ग से ले जाकर चंद्र देवता को, वह चंद्रलोक के मार्ग से विद्युल्लोक को पहुँचाता है, तत्पश्चात् जीव ध्रुवलोक के उस पार पहुँच जाता है।) ।।11।।
तदनन्तर महर्लोक में सुखपूर्वक वास करता हुआ जीव जब शेष के मुख से निकली हुई अग्नि की ऊष्मा से संतप्त होने लगता है, तब वह आपके शरणागत होकर ब्रह्मपद अर्थात सत्यलोक को प्राप्त हो जाता है अथवा ऊष्मसंताप से पूर्व ही वह स्वेच्छानुसार वहाँ जा सकता है।।12।। |
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