श्रीनारायणीयम्
अष्टात्रिंशत्तमदशकम्
उस समय बाल्यभाव का स्पर्श करते हुए भी जिसने ईश्वरत्वद्योतक विभूतियाँ धारण कर रखी थीं, जिससे प्रकाशमान्, किरीट, कटक, बाजूबंद और हार की प्रभा छिटक रही थी, जो अपनी चारों भुजाओं में शंख, चक्र, कमल और गदा धारण करने से उद्दीप्त हो रहा था तथा जिसकी कान्ति सजल जलधर के समान श्याम थी, अपने उस श्रीविग्रह से आप सूतिकागृह में शोभा पाने लगे।।3।।
वासुदेव! अपने वक्षःस्थल पर सुखपूर्वक निवास करने वाली विलासवती लक्ष्मी के लज्जापूर्वक लक्षित होने वाले विभिन्न प्रकार के कटाक्ष पातों से उस भवन की दुष्ट कंस द्वारा उत्पन्न की हुई अलक्ष्मी (शोभाहीनता)- का उन्मार्जन करते हुए से आप विशेष रूप से सुशोभित हो रहे थे।।4।। |
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