श्रीनारायणीयम्
षट्त्रिंशत्तमदशकम्
चौदह वर्ष की अवस्था में ही आपने संपूर्ण वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक बार (जल लाने के लिए नदी-तट पर गयी हुई) माता रेणुका गन्धर्वराज चित्ररथ को वहाँ विहार करते देखकर उस पर कुछ आसक्त हो गयीं। तब कोधाविष्ट होकर महर्षि जमदग्नि ने उन्हें मार डालने के लिए पुत्रों को आज्ञा दी, परंतु ज्येष्ठ पुत्रों ने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया। तब आपने अपने सहोदर बड़े भाइयों सहित माता का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर पिता के प्रसन्न होने पर उनसे भ्राताओं तथा माता के पुनरुज्जीवन संबंधी वर प्राप्त किया। जीवित होने पर माता ने भी आपको वरदान दिया।।3।।
तदनन्तर पितामह भृगु के आदेश से, जिसमें पिता ने माता रेणुका की प्रसन्नता के लिए स्तवन करके स्वर्ग की धेनु सुरभि को ला रखा था, अपने उस आश्रम से प्रस्थान करके हिमालय पर जाकर गोरीपति की आराधना की। फिर शिव जी से वर-रूप में उनका फरसा तथा अन्य महान् अस्त्रसमूहों को प्राप्त करके उनके द्वारा बतलाये हुए दानवों का संहार किया। तत्पश्चात् अपने मित्र अकृतव्रण मुनि से मिलकर आप अपने आश्रम को लौट आये।।4।। |
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