श्रीनारायणीयम्
पञ्चत्रिंशत्तमदशकम्
आपके पुत्र लव-कुश द्वारा जिनकी मधुर कृति रामायण काव्य का गान किया जाता था, उन महर्षि वाल्मीकि की आज्ञा से सीता यज्ञशाला में पधारीं; क्योंकि आप उन्हें प्राप्त करना चाहते थे। वहाँ वे पृथ्व में प्रवेश कर गयीं और काल ने आपसे भी स्वर्गारोहण के लिए प्रार्थना की। तब निमित्तवश लक्ष्मण का परित्याग करके स्वयं आप सरयू में डूबकर अपने सम्पूर्ण भृत्यों के साथ स्वर्गलोग में होते हुए ब्रह्माण्डोत्पत्ति से भी पूर्व विद्यमान रहने वाले अपने निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।।9।।
चक्रपाणे! आपका यह मर्त्यावतार निश्चय ही मृत्युलोकवासियों के शिक्षार्थ ही हुआ था। इस प्रकार कामासक्ति से प्रिय विरहजनित दुःख और धर्मासक्ति से निरपराध का त्याग भी होता है (अतः कामादि में अत्यंत आसक्ति नहीं करनी चाहिए।) अन्यथा स्वानुभूति संपन्न आपके मन में विकार कहाँ? सत्त्वैकमूर्ते! पवनपुरपते! ऐसे आप मेरे रोगजनित कष्ट को दूर कर दीजिए।।10।। ।।इति श्रीरामचरित वर्णनं पञ्चत्रिंशत्तम दशकं समाप्तम्।। |
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