श्रीनारायणीयम्
त्रयस्त्रिंशत्तमदशकम्
मुनि दुर्वासा भयभीत होकर समस्त भुवनों में भागते फिरे, परंतु उन्हें सर्वत्र आपका चक्र पीछे लगा हुआ दिखायी पड़ा। तब वे रक्षार्थ ब्रह्मा के पास गये। वहाँ ‘भला, इस कालचक्र का अतिक्रमण कौन कर सकता है?’- यों कहकर निराश लौटाये जाने पर वे भगवान् शंकर की शरण में गये; किंतु शिव जी ने भी आपकी वन्दना ही की।।7।।
भूमन्! फिर, दुर्वासा वैकुण्ठ में पहुँचकर आपके चरणों में जा गिरे। उन्हें प्रणिपात करते देखकर आपने उनसे यों कहा- ‘ऋषे! मैं तो भक्तों का ही दास हूँ। ज्ञान और तप विनयुक्त होने पर ही आदरणीय होते हैं; अतः आप जाइये, अम्बरीष की ही शरण ग्रहण कीजिए’।।8।। |
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज