श्रीनारायणीयम्
एकोनत्रिंशत्तमदशकम्
‘यह हम लोगों में अनुराग रखने वाली है’- यों विचारकर वे असुर चुपचाप बैठे रहे, तब तक भक्तजनों के वशवर्ती आपने वह अमृत देवताओं में ही समाप्त करके अपना असली रूप धारण कर लिया। जिसके गले तक अमृत पहुँच चुका था, उस राहु के सिर को काट दिया।।5।।
आपके पास से अमृत का अपहरण करने के योग्य जो व्यर्थ परिश्रमरूप फल था, उसे असुरों को देकर जब आप अन्तर्धान हो गये, तब उन असुरों ने देवों के साथ युद्ध ठान दिया। तत्पश्चात् उस बढ़ते हुए घोर संग्राम में जब दैत्यराज बलि की आसुरी माया से सुर-समुदाय विमोहित हो गया, तब आप वहाँ प्रकट हो गये।।6।। |
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