श्रीनारायणीयम्
एकोनत्रिंशत्तमदशकम्
वे अतिशय मोह के वशीभूत हो गये थे, अतः आपसे याचना करते हुए बोले- ‘मृगनयनी! तुम कौन हो? इस अमृत को हम-लोगों में बाँट दो।’ तब ‘दैत्यों! मैं एक कुलटा स्त्री हूँ, तुम लोग मुझमें कैसे विश्वास कर रहे हो।’ –यों कहते हुए भी आपने उनमें गाढ़ विश्वास उत्पन्न कर दिया।।3।।
तत्पश्चात् वे असुर हर्षपूर्वक जब वह अमृतकलश आपको देने लगे, तब आपने ‘मेरी दुश्चेष्टाओं को तुम्हें सहना पड़ेगा’- यों कहकर देवता और असुरों को भिन्न-भिन्न पंक्तियों में बैठाया और लीला-विलासपूर्ण गति से चलकर उस सुधा को पूर्णरूप से देवताओं को दे दिया।।4।। |
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