श्रीनारायणीयम्
पञ्चविंशतितमदशकम्
अहो! जिसके तपे हुए स्वर्ण के समान पीले तथा अत्यंत रूखे नेत्र चंचल हो रहे थे और सटाके बाल ऊपर उठे हुए हिल रहे थे, जिनसे गगनतल आच्छादित हो रहा था, जिसका मुख खुली हुई एक विस्तृत महती गुफा-सदृश था, जिसकी खड्ग के समान तीखी महान् जिह्वा मुख के बाहर लपलपा रही थी और जो दृश्यमान दो महान् दाढ़ों से अत्यंत भीषण लग रहा था, आपके उस दिव्य विग्रह की जय हो।।3।।
अट्टहास करते तथा जँभाई लेते समय ऊपर उठने वाली वलिभंगिमा से जिसके जबड़े बड़े भयंकर लग रहे थे, जिसकी गरदन नाटी तथा मोटी थी, जिसके सैकड़ों मोटे-मोटे हाथ थे, जिनके नखों की क्रूर किरणों से वह अतिशय भयावना लग रहा था, जो आकाश को लाँघने वाले सजल जलधर के गर्जन सदृश अत्यंत भयानक गर्जना से शत्रु समूहों को खदेड़ देने वाला था, आपके उस नृसिंह-शरीर को मैं नमस्कार करता हूँ।।4।। |
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