श्रीनारायणीयम्
त्रयोविंशतितमदशकम्
अत्यंत संगविलयाय भवत्प्रणुन्नो फिर भी आसक्ति का सर्वथा विनाश करने के लिये आपकी प्रेरणा से वे घूमते-घामते रजतगिरि (कैलास) पर जा पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े मुनियों समाज में कामदेव के शत्रु शंकर जी को निश्शंक भाव से पार्वती को गोद में लिये बैठे देखकर उनका परिहास करने लगे। तब उमा देवी ने चित्रकेतु को शाप दे दिया॥9॥ निस्सम्भ्रम स्त्वयमयाचित शाप्मोक्षो किन्तु चित्रकेतु ने शापमोक्ष के लिये याचना नहीं की। वे वृत्रासुर-रुप से उत्पन्न होकर सम्भ्रमरहित हो देवराज इन्द्र के साथ युद्ध में तत्पर हो गये। समरभूमि में ही भक्तिपूर्वक आत्मतत्त्व के वर्णन द्वारा अपने शत्रु इन्द्र के भी अज्ञान को नष्ट करके (वज्र से आहत होकर) वे आपके निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये। यह एक आश्चर्य की बात हुई।।10।। |
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